राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी सत्य, अहिंसा, त्याग और तपस्या के महाप्रतिपादक थे। वैश्विक स्तर पर महात्मा गाँधी का व्यक्तित्व आदर्श का प्रेरणास्त्रोत है। गाँधी जी ने अहिंसा के बल पर ही अत्यन्त अत्याचारी एवं क्रूर अंग्रेजी सरकार को हिलाकर रख दिया था और अहिंसा के मार्ग पर अडिग रहते हुए ही उन्होंने पूरे विश्व को शांति और सौहार्द का अविस्मरणीय पाठ पढ़ाया था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान स्वतंत्रता सेनानी दो मुख्य दलों में बंटे हुए थे, जोकि क्रमशः नरम दल और गरम दल थे। इनमें से नरम दल का नेतृत्व राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी करते थे। उन्होंने हमेशा अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए आजादी की राह का मार्ग प्रशस्त किया। हालांकि, गरम दल के क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी गाँधी जी के अहिंसा के सिद्धान्त को 'कायरता' की संज्ञा तक देने से नहीं चुकते थे। यह कहना कदापि गलत नहीं होगा कि यह धारणा तभी पनप पायी, जब 'अहिंसा' के मर्म को राष्ट्रपिता के नजरिये से नहीं समझा गया। गाँधी जी द्वारा अपनाई जाने वाली 'अहिंसा' का सार अपार है। गाँधी जी के अनुसार 'अहिंसा' का अर्थ किसी जीव को केवल शारीरिक कष्ट पहुँचाना नहीं है। बल्कि, मन एवं वाणी द्वारा किसी को कष्ट पहुँचाना भी 'अहिंसा' की श्रेणी में आता है। इसका मतलब, किसी को मारना अथवा पीटना ही नहीं, अपितु यदि किसी को मानसिक अथवा जुबानी तौर पर भी आहत किया जाता है, वह भी 'हिंसा' ही कहलाएगी। गाँधी जी कहते थे कि अहिंसा का अर्थ बुराई के बदले, भलाई करना और नफरत के बदले प्रेम करना है। उनका स्पष्ट तौर पर कहना था कि 'अहिंसा' का मतलब 'कायरता' बिल्कुल भी नहीं है। उन्होंने इसी सन्दर्भ में 'यंग इण्डिया' में लिखा कि 'अहिंसा का मेरा व्रत अत्यन्त सक्रिय है। इसमें कायरता एवं कमजोरी के लिए कोई स्थान नहीं है। यदि मुझे इन दोनों में से किसी एक को चुनना पड़े तो मैं अहिंसा का चुनाव करूंगा।' राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी साफ तौर पर कहते थे कि सत्य और अहिंसा व्यक्तिगत आचार के नियम नहीं हैं। यह अनादि काल से चलते आये हैं। वे तो सिर्फ अपने दैनिक जीवन में इनका प्रयोग करते हैं। महात्मा गाँधी ने जीवन भर आदर्श एवं अनुकरणीय सिद्धान्तों की पालना की। उन्होंने अपनी आत्मकथा 'सत्य के मेरे प्रयोग' में उन सभी पहलुओं पर बड़ी बारीकी से प्रकाश डाला है, जिनको उन्होंने अपनी निजी जिन्दगी में सत्य की कसौटी पर एकदम खरा पाया। कहना न होगा कि 'सत्य के मेरे प्रयोग' में महात्मा गाँधी के जीवन का असीम सार समाहित है। इसका अध्ययन करने मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है। ऐसे में यदि इन सिद्धान्तों और विचारों का अनुकरण किया जाये तो उसका प्रतिफल क्या होगा, इसका सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है। गाँधी जी द्वारा सत्य की कसौटी पर परखे गये हर पहलू को सफलता, सम्मान और समृद्धि का अचूक सूत्र माना जा सकता है। गाँधी जी के अनुसार, आमतौर पर हम किताबें पढ़ लेते हैं। लेकिन, किताब के अन्दर समाहित ज्ञान को भुला देना, सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात होती है। गाँधी जी कहते थे कि हमें अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति हेतू कभी भी अपने धर्म, सत्य एवं अहिंसा के मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए। गाँधी जी किसी के उपकार के प्रति कृतज्ञता बरतने की बड़ी नेक सलाह देते थे। उनका कहना था कि ''जो हमें पानी पिलावे, उसे हम भोजन करावें। जो हमारे सामने शीश झुकावे, उसे हम दण्डवत प्रणाम करें। जो हमारे लिये एक पैसा खर्चे, उसके लिए हम गिन्नियों का काम कर दें। जो हमारे प्राण बचावे, उसके दुःख निवारण में हम अपने प्राण तक न्यौछावर कर दें। उपकार करने वाले के प्रति तो मन, वाणी और कर्म से दस गुणा उपकार करना ही चाहिए। इसके अलावा जग में सच्चा और सार्थक जीना उसी का है, जो अपकार करने वाले के प्रति भी उपकार करता है।'' निश्चित तौर पर गाँधी जी के ये सिद्धान्त एक आदर्श व्यक्तित्व के निर्माण में बेहद अहम भूमिका अदा कर सकते हैं। महात्मा गाँधी जी सहनशीलता के गुण को आत्मसात करने पर बेहद जोर देते थे। उनका मानना था कि इस दुनिया में जितनी भी समस्यायें, द्वेष, संकीर्णता जैसी अनेक दुर्भावनायें भरी पड़ी हैं, उन सबका मूल कारण कहीं न कहीं असहनशीलता है। गाँधी जी तो यहां तक कहते थे कि यदि कोई तुम्हें एक गाल पर थप्पड़ मारे तो उसके सामने दूसरा गाल भी कर देना चाहिए। गाँधी जी कहते थे कि हमारा व्यवसाय चाहे कोई भी हो, हमें उसे सच्चे व समर्पित भाव से करना चाहिये। गाँधी जी ने हमेशा कुसंगति से बचने पर जोर दिया। वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि ''अगर तुम अपने अभिन्न मित्र में भी किसी बुराई का समावेश देखते हो तो तुम्हें न केवल उस बुराई से दूर रहने, बल्कि अपने मित्र को भी उस बुराई से दूर करने के लिए भी दृढ़ निश्चय करना चाहिए।'' राष्ट्रपिता ने ब्रह्मचर्य पर भी बेहद जोर दिया। इस बारे में उनका विचार था कि ''ब्रह्मचर्य शरीर-रक्षण, बुद्धि रक्षण और आत्मा-रक्षण तीनों है। जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं रखता, वह शरीर, बुद्धि और आत्मा तीनों को गंवाता है। ब्रह्मचर्य व्रत बड़ा जटिल है। इसके लिए सर्वप्रथम आनंद और उपभोग की प्रवृत्ति से बिल्कुल मुक्त होना पड़ता है। ब्रह्मचर्य जैसी कठोर तपस्या के फलस्वरूप साक्षात ब्रह्मा के दर्शन होते हैं।'' गाँधी जी क्रोध से बचने की हमेशा शिक्षा देते थे। वे कहते थे कि ''क्रोध एक प्रचण्ड अग्नि है। जो मनुष्य इस अग्नि को वश में कर सकता है, वह उसको बुझा देगा। जो मनुष्य इस अग्नि को वश में नहीं कर सकता, वह स्वयं अपने को जला लेगा।'' गाँधी जी ने क्रोध पर काबू पाने का मंत्र भी दिया। उन्होंने बताया कि ''क्रोध को जीतने में मौन जितना सहायक होता है, उतनी और कोई भी वस्तु नहीं।'' राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी शिक्षा पर बेहद जोर देते थे। वे कहते थे कि ''शिक्षा का उद्देश्य महज साक्षर होना नहीं, बलिक शिक्षा का उद्देश्य, आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति का जरिया होना चाहिये। यह तभी संभव है, जब शिक्षा प्रयोजनवादी/बुनियादी विचारधारा पर आधारित होगी।'' गांधी जी शिक्षा की गुणवता को बढ़ाने के लिए भी बराबर प्रेरित किया करते थे। उनका मानना था कि ''अध्यापक विद्यार्थी को योग्य बनाने के दायित्व को पूर्णतः निभाए। मानवीय चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा में आवश्यक पाठ्यक्रम का विकास होना चाहिये। विद्यार्थी के मस्तिष्क से किताबों का बोझ कम होना चाहिये। विद्यार्थी और शिक्षक, दोनों को राजनीति से दूर रहना चाहिये। सुन्दर एवं स्वस्थ जीवन को बनाने के लिए शिक्षा में योग-शिक्षा का होना अति आवश्यक है।'' महात्मा गाँधी जी शुरूआती शिक्षा अंग्रेजी की बजाय हिन्दी में करने के लिए प्रेरित करते थे। उनका कहना था कि ''हमें दुःख है कि हम हिन्दुस्तानी होकर भी हिन्दी बोलने से परहेज करते हैं। हमारे बच्चों की शुरूआती शिक्षा अंग्रेजी में हो, इस कोशिश में हम लोग लगे रहते हैं। अंग्रेजी सीखना बुरी बात नहीं है। पर, जब बालक पुख्ता उम्र का हो, तब अंग्रेजी सीखने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन, शुरूआती शिक्षा अंग्रेजी में हो, यह हम हिन्दुस्तानियों के लिए अपमान की बात है। हमें अंग्रेजी नहीं, अंग्रेजीयत से डरना चाहिए। लेकिन, पश्चिमी सभ्यता वाली शिक्षा, सभ्य समाज के लिए खतरनाक है।'' गाँधी जी के तीन सांकेतिक बन्दर भी जीवन को सफल, सम्मानित और समृद्ध बनाने के लिए अचूक शिक्षा देते हैं कि 'कभी बुरा मत देखो', 'कभी बुरा मत सुनो' और 'कभी बुरा मत बोलो'। निःसन्देह कामयाबी हासिल करने का इससे बढ़कर कोई अन्य अमोघ मंत्र हो भी नहीं सकता है। गाँधी जी सच्चे 'स्वराज' की स्थापना करना चाहते थे। वे स्पष्ट तौर पर कहते थे कि ''सच्चा स्वराज मुठ्ठी भर लोगों द्वारा सत्ता-प्राप्ति से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरूपयोग किये जाने की सूरत में, उसका प्रतिरोध करने का जनता में सामथ्र्य विकसित होने से आयेगा।'' गाँधी जी बार-बार कहते थे कि 'स्वराज' एक पवित्र शब्द है, जिसका अर्थ है 'स्वशासन' तथा 'आत्मनिग्रह'। सच्चे स्वराज का अनुभव स्त्री, पुरूष और बच्चों, सभी को होना चाहिए। इसके लिए प्रयास करना ही सच्ची क्रांति है। वे स्पष्टतः बतलाते थे कि ''मेरे सपनों का स्वराज किसी प्रजातिगत अथवा धार्मिक भेदभावों को नहीं मानता। स्वराज सभी का होगा, शिक्षितों और धनवानों का भी, पर इसमें खासतौर से अपंग, नेत्रहीन, भूखे और मेहनतकश करोड़ों भारतवासी शामिल होंगे। मेरे सपनों का स्वराज गरीबों का स्वराज है। जीवन की अनिवार्य वस्तुएं तुम्हें भी उसी प्रकार उपलब्ध होनी चाहिए, जिस प्रकार राजाओं और धनवानों का उपलब्ध हैं। लेकिन, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे पास उन जैसे महल भी होंगे। सुखी जीवन के लिए यह आवश्यक नहीं हैं। तुम या मैं तो उसमें खो जाएंगे। लेकिन, तुम्हें जीवन की वे सभी सामान्य सुख-सुविधाएं मिलनी चाहिएं, जो एक धनी व्यक्ति को उपलब्ध हैं। मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि जब तक तुम्हें इन सुख-सुविधाओं की गारंटी नहीं मिलती है, तब तक पूर्ण स्वराज नहीं माना जा सकता।''
अहिंसा के बल पर अंग्रेज हुकूमत हिला दी थी गाँधीजी ने