माँ!...यह शब्द ईश्वर ने उसके लिए नहीं बुना था। माँ!...यह शब्द तो उसे खुद रचना था। जन्म लेते ही किसी को 'माँ' और 'भाई' कहने का अधिकार छिन गया था उससे। उसकी नन्हीं सी आँखें खुली भी न थी उससे पहले ही 'माँ' और साथ जन्मा जुड़वा 'भाई' ईश्वर के घर जा चुके थे। पर उससे तो कभी किसी ने यह भी नहीं कहा कि तुम्हारी माँ और भाई ईश्वर के घर चले गए हैं। उसके कानों पर तो जन्म लेते ही पहला ताना यही पड़ा था, 'नासपीटी, पैदा होते ही खा गयी अपनी माँ और भाई को।'
उसे अभी इन शब्दों के मायने नहीं पता थे। इन्हें कह देने वाली ज़ुबान की कड़वाहट भी उसने अभी नहीं चखी थी। वह तो जिस भी गोद में जाती टुकुर-टुकुर उसकी आँखों में माँ को तलाशा करती थी, इस बात से बेफिक्र कि वह किसी गोद में फूल की तरह नहीं ली जा रही है। वह बस सर पर आ पड़ी जिम्मेदारी के एक बोझ की तरह थामी जा रही है।
फूल सभी को प्यारे लगते हैं। लेकिन कोई गर फूल को फूल समझे ही ना तो फूल का फूल रह पाना भी कितना मुश्किल हो जाता है। पर इस फूल को ना जाने किसका आशीर्वाद मिला था कि हजार ताने, लानते और चांटों के बावजूद भी इसकी आँखों की चमक फीकी न पड़ती थी। 'माँ' को तलाशती इस फूल की आँखें सदा तरल बनी रही।
दादी के हाथों मार खाते, रोते-पिटते यह फूल कब 5 साल का हो गया पता भी न चला। खेलने-कूदने के दिनों में यह फूल अक्सर घर का कोई काम करता नज़र आता था। दादा अपने हुक्के और हम उम्र लोगों की पंचायत में व्यस्त रहते थे। पिता रात देर से लौटते थे। उनके पास भी पैदा होते ही माँ और भाई को खा जाने वाली लड़की के लिए समय और स्नेह नहीं था। दरअसल माँ को खा जाने की बात एक बहाना थी। इन शब्दों के पीछे की हकीकत कुछ और थी।
उस दिन जब माँ को अस्पताल ले जाया जा रहा था तो उसकी आँखों में एक खौफ था। मन ही मन दिल प्रार्थना कर रहा था, 'हे ईश्वर! गर लड़की है भीतर तो किसी भी तरह बदल दो उसे लड़के में। एक नन्हें से फूल की हत्या का भागी मत बनाओ मुझे। अपने ही हिस्से को किसी कूड़ेदान का हिस्सा बनता नहीं देख पाऊंगी।'
ईश्वर ने प्रार्थना सुन ली थी लेकिन किसी और तरह से। 'दो जुड़वाँ बच्चे हैं – एक लड़का और एक लड़की।' डॉक्टर से यही कहते सुना था। लड़के की आस में किसी तरह लड़की को स्वीकार कर लिया गया था। भाई ने अनजाने में ही सही राखी का फर्ज निभा दिया था।
लेकिन आगे चलकर यह सुनी गयी प्रार्थना बड़े ही भयानक रूप में साकार हुई। जन्म देते ही माँ चल बसी और कुछ ही देर बाद भाई भी। फूल बच गया था। किसी कूड़ेदान का हिस्सा बनने का ख़तरा अब भी मंडरा रहा था पर किसी रिश्तेदार की समझाइश पर जैसे-तैसे स्वीकार कर लिया गया। अब बात के फ़ैल जाने के ख़तरे भी अधिक थे, क़ानून का कुछ डर था, निर्दयता असीम नहीं हुई थी। इसलिए फूल बच गया था।
लेकिन बचे हुए फूल के हिस्से में अब सिर्फ कांटें थे। पल-पल मिलती दादी की झिड़क, पिता और दादा के स्नेह को तरसती आँखों की तड़प...बस यही उसके जीवन की कहानी थी। पिता की शादी के लिए माँ की मौत के कुछ ही समय बाद लड़की की तलाश शुरू कर दी गयी थी। एक संतान और वह भी लड़की के विधुर पिता के लिए अच्छा मालदार रिश्ता मिल पाना इतना आसान नहीं था। कई जगह बात बनती-बिगड़ती और तलाश-तलाश में पांच साल गुजर गए। लेकिन इस तलाश के साथ ही फूल के आँखों की चमक भी बढ़ रही थी। फूल का किसी को 'माँ' कह पाने का सपना अभी मुरझाया नहीं था।
एक दिन रिश्ता पक्का हो ही गया। नए क़दमों ने गृह प्रवेश किया था। आँखों में उल्लास और चमक लिए फूल दौड़ते हुए आया था। 'माँ' शब्द गले से बाहर आने को बेकरार था। लेकिन इस उल्लास में वह सीधे नए क़दमों से जोर से टकरा गया और उन नए क़दमों के हाथों से कोई सामान छूटकर गिर गया। एक तेज थप्पड़ गालों पर पड़ा था। 'माँ' शब्द गले के भीतर ही घुट कर रह गया था।
पहले सिर्फ दादी की झिड़क ही थी। वह झिड़क कुछ-कुछ अपनी सी तो लगती थी। लेकिन नए क़दमों की झिड़क और थप्पड़ों में तो अपनेपन का कोई नामों-निशान भी न था। सौतेली माँ को जाने क्यों बस सौतेला ही होना था।
दिन गुजरते गए, साल गुजरते गए। फूल पूरे 18 साल का हो गया था। घर में कोई नयी किलकारी नहीं गूंजी थी। नए क़दमों के लिए फूल भाग्यशाली था। घर के सारे कामों का भार तो ले ही लिया था। अब बच्चा न जन पाने का सारा दोष भी फूल की मनहूसियत पर मढ़ दिया गया था।
दादी पोते की आस लगाये-लगाए स्वर्ग सिधार गयी थी। दादी कैसी भी हो वह स्वर्ग ही जाती है। दादा बीमारी में अपने आखिरी दिन गिन रहे थे। इधर डॉक्टर के चक्कर लगाते-लगाते एक दिन घर में एक किलकारी गूंजी थी। नए क़दमों ने भी एक बच्ची को ही जन्म दिया था। बरसों तक बच्चा न हो पाने की वजह से इस बार लड़के-लड़की की जांच करवाने का ख़याल आया ही नहीं था। और शायद सभी यह भरोसा कर बैठे थे कि लड़का ही होगा। लेकिन जब लड़की ने जन्म लिया तो फिर एक निराशा घिर आई थी। लेकिन फूल की आँखों में अरसे बाद फिर से चमक आई थी। बस यह चमक पहले वाली चमक से थोड़ी अलग थी। पहले 'माँ' कह पाने की आशा थी। अब 'माँ' सुन पाने की आशा पनपने लगी थी। फूल लाख मनहूस थी लेकिन घर के लिए मुफ्त में मिली नौकरानी भी थी और बच्ची की आया भी। इसलिए फूल की शादी नहीं की जा सकती थी।
लेकिन फूल ने तो शादी के बारे में कभी कोई सपने बुने भी नहीं थे। जन्म से बस उसकी आँखों की चमक एक ही शब्द के इर्द-गिर्द घूमती रही थी। नए क़दमों को लड़की होने की वजह से अपने बच्चे के लालन-पालन में भी कोई खास आकर्षण नहीं था। हालाँकि सौतेलापन नहीं था, अधिकार पूरा था लेकिन कर्तव्य नहीं। नए क़दमों ने अगले बच्चे के रूप में लड़के के सपने बुनना शुरू कर दिया था और बच्ची की देखरेख का ज्यादातर काम फूल के भरोसे ही था। इसी वजह से फूल को बहुत सारा समय अपनी छोटी बहन के साथ गुजारने को मिल जाता था। नन्हीं बहन जब 3 बरस की हुई तो पहली बार उसने 'माँ' बोला था। नए क़दमों को नहीं उसने अनजाने में फूल को माँ बोला था। अनजाने में बच्चे अक्सर सही बात बोल जाते हैं। उस समय नए कदम आसपास नहीं थे। फूल के गले में घुटा हुआ शब्द जब उसके ही लिए किसी और के मुंह से बाहर आया तो आँखों की सारी चमक और तरलता नदी बनकर बहने लगी। पल भर के लिए ही सही फूल का सपना आज पूरा हो गया था। माँ!...यह शब्द ईश्वर ने उसके लिए नहीं बुना था। माँ!...यह शब्द तो उसे खुद रचना था।
मोनिका जैन 'पंछी'