बदलते मौसम के संग बदली सदियां,
पर हालात नहीं बदल पाते हैं,
आज भी लेने ''अपनी'' सीता की अग्नि परीक्षा,
कई राम कतार में खड़े नजर आते हैं।
धरती नापी, आसमान भी चूमा,
पर घर-लक्ष्मी की आज भी है कहानी वही,
बस बहुत हुआ, अब अग्नि परीक्षा और न दूंगी,
मैं नहीं सीता, तुम राम सही।
कभी न थकी, कभी न रूकी पर अब बस हार गई हूं।
नहीं दे सकती और ब्यौरा, कब, क्यूं और
कहां किसलिए बाजार गई हूं।
अब रंगना है मुझे अपने ही रंग में,
बहुत तुम्हारे ढंग में बही
बस बहुत हुआ, अब अग्नि परीक्षा और न दूंगी,
मैं नहीं सीता, तुम राम सही।
सांसें मेरी, जीवन मेरा, अब निर्णय भी होंगे मेरे,
बहुत कोलहु की बैल बन चली,
अब डोर तुम्हारे हाथ में न बंधने दूंगी,
बाबुल के आंगन में जो पतंग बन पली,
तय करनी है मुझे ही मेरी मर्यादा,
बहुत तुम्हारे दायरे में रही,
बस बहुत हुआ, अब अग्नि परीक्षा और न दूंगी,
मैं नहीं सीता, तुम राम सही।
बैठी जब हिसाब लगाने, घर तुम्हारा, बच्चे तुम्हारे,
ठेस खाती जो, वो झूठी षान भी तुम्हारी,
तुम्हारे नजरिए से देखूं तो,
हर किस्से-कहानी में हुआ करती है मेरी ही गलती सारी,
तुमसे तुम तक की दुनिया को समेट,
बनाऊंगी पहचान नई,
बस बहुत हुआ, अब अग्नि परीक्षा और न दूंगी,
मैं नहीं सीता, तुम राम सही।
तुम्हारी उठती अंगुली पे, पल-पल जलती,
मैं साबित हो जाऊं पाक, वो अग्नि कहां से लाऊं,
सच्चा साबित कर खुद को, संभाले मुझे खुद में,
वो धरती कहां से पाऊं,
अब न बनेंगी पैरों की बेड़ियां,
वो जो तुमने हर बात कही,
बस बहुत हुआ, अब अग्नि परीक्षा और न दूंगी,
मैं नहीं सीता, तुम राम सही।
-डाॅ. सरला बी.एल. षर्मा, ब्यावर
मैं नहीं सीता, तुम राम सही.!